हमारे देश भारतवर्ष की जलवायु कई ऋतुओं का सम्मिलन है. इनमें वर्षाऋतु को 'ऋतुओं की रानी' कहा जाता है. इस ऋतु का आगमन प्रचंड ग्रीष्म ऋतु के तुरंत बाद होता है, अर्थात यह ऋतु आषाढ़ से शुरू होकर आश्विन तक रहती है. यह ऋतु सम्पूर्ण जीव-जगत, वन-वृक्ष और भयानक गर्मी से तपती धरती को शीतलता प्रदान करती है. वर्षा ऋतु प्यासी प्रकृति के लिए अमृत के समान जीवनदायिनी है.


इस ऋतु में प्रकृति सबसे अधिक मनोहारी होती है. सर्वत्र हरियाली और आनंद का वातावरण बन जाता है. आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देखकर मयूर नृत्य करने लगते हैं. लोग उपवनों की सुंदरता का आनंद लेते हैं. युवतियाँ झूला झूलने का आनंद लेती है. गाँवों में खेतों की क्यारियों में जल भर जाता है और फसलें लहलहा उठती हैं. ऐसा प्रतीत होता है, मानों प्रकृति ने सर्वत्र हरी चादर ओढ़ ली हो. मेढकों की टर्र-टर्र, आकाश में कौंधती बिजली, वृक्षों-लताओं के नवीन धुले हुए पत्ते और सर्वत्र बहते हुए पानी के प्रभाव से प्रकृति संगीतमय हो जाती है. संत तुलसीदास जी रामचरितमानस में वर्णन करते हैं -

"वर्षाकाल मेघ नभ छाए, गरजत लागत परम सुहाए."


वर्षा ऋतु प्रकृति और जनमानस के लिए लाभप्रद ऋतु है. इसका पानी कृषि और पीने के लिए तो उपयोगी है ही, साथ ही प्रदूषण को भी कम करता है. इसका पानी नदियों, सरोवरों और नहरों में जमा हो जाता है. इस पानी का उपयोग अन्य ऋतुओं में खेती तथा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए भी होता है. हमारे देश में अधिक से अधिक सिचाई का कार्य वर्षा ऋतु के पानी से ही होता है. अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीय कृषि मूल रूप से इस ऋतु पर निर्भर है. कहा भी गया है "भारतीय कृषि मॉनसून-आधारित है."


कभी कभी कम वर्षा या अत्यधिक वर्षा होना हानिकारक हो जाता है. अनावृष्टि से अकाल आ जाता है. अतिवृष्टि से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है. फसलें बर्बाद हो जाती हैं और खाद्य समस्या उत्पन्न हो जाती है. अधिक वर्षा से यातायात भी प्रभावित होता है. यत्र-तत्र जमे पानी में मच्छर आदि अनेक हानिकारक जीव उत्पन्न हो जाते हैं.


यह ऋतु धरती को तृप्त और प्रसन्न करने वाली है. अत्यधिक उपयोगी होने के कारण सभी जीवधारी इसकी प्रतीक्षा करते हैं. कुल मिलाकर यह ऋतु अनुपम और कल्याणकारी है.