Aitareya-Upanishad-Gita-Press-Hindi-Book-PDF


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ऐतरेय उपनिषद हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Aitareya Upanishad Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : ऐतरेय उपनिषद | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 150 MB है | इस पुस्तक में कुल 108 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "ऐतरेय उपनिषद" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Aitareya Upanishad | Author/Editor of this book is : Gita Press, Gorakhpur | This book is published by : Gita Press, Gorakhpur | PDF file of this book is of size 150 MB approximately. This book has a total of 108 pages. Download link of the book "Aitareya Upanishad" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
गीता प्रेस, गोरखपुरधर्म, उपनिषद150 MB108



पुस्तक से : 

ऋग्वेदीय ऐतरेयारण्यकान्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय ४, ५ और ६ का नाम ऐतरेयोपनिषद् है । यह उपनिषद् ब्रह्मविद्याप्रधान है । भगवान् शंकराचार्य ने इसके ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसके उपोद्घात भाष्य में उन्होंने मोक्षके हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और कर्मसमुच्चित ज्ञान का निराकरण कर केवल ज्ञान को ही उसका एकमात्र साधन बतलाया है। 

 

इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं । उनमेंसे पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायोंमें केवल एक-एक खण्ड है । प्रथम अध्यायमें यह बतलाया गया है कि सृष्टिके आरम्भमें केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था । उसने लोक रचनाके लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल संकल्प से ही अम्भ, मरीचि और मर—इन तीन लोकोंकी रचना की । इन्हें रचकर उस परमात्मा ने उनके लिये लोकपालों की रचना करनेका विचार किया और जल से ही एक पुरुषकी रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया ।

 

अतः ज्ञानोपयोगिनी साधन सम्पत्ति को उपार्जन करना तथा कामनाओंका अभाव – ये ही गृहत्याग के मुख्य हेतु हैं । जो लोग घरमें रहते हुए ही शम-दमादि साधनसम्पन्न हो सकते हैं और जिन बोधवानोंकी निष्कामतामें अपने गृहविशेषमें रहना बाधक नहीं होता वे घरमें रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं । वे स्वरूप से संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्म सम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही अनुसरण करनेवाले हैं ।

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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