Dhvanyaloka-Hindi-Book-PDF

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ध्वन्यालोक हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Dhvanyaloka Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : ध्वन्यालोक | इस ग्रन्थ के मूल रचनाकार हैं : आनंद वर्धन | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: आचार्य लोकमणि दाहाल | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 1.5 GB है | इस पुस्तक में कुल 791 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "ध्वन्या लोक" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Dhvanyaloka | This book is originally composed by : Anand Vardhan | Editor of this book is : Acharya Lokamani Dahal | This book is published by : Bharatiya Vidya Prakashan, Varanasi | PDF file of this book is of size 1.5 GB approximately. This book has a total of 791 pages. Download link of the book "Dhvanyaloka" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
आचार्य लोकमणि दाहालसाहित्य, काव्य1.5 GB791



पुस्तक से : 

मदमाते बादलों से आच्छन्न आकाश, वर्षा की धाराओं से प्रक्षालित हैं अर्जुन के वृक्ष जिसमें ऐसे वन, अभिमान से शून्य है चन्द्रमा जिसमें ऐसी काली रातें भी मन को लुभा लेती हैं. यह वाक्पतिराज के 'गठडवहो' में वर्षा ऋतु के लिए प्रस्तुत पद्य है।

 

जहाँ पर रस मुख्यतया वाक्यार्थ के रूप में रहता है, वहाँ पर वह अलङ्कार हो ही नहीं सकता। अलङ्कार तो सौन्दर्य का निष्पादक कारण होता है। स्वयं ही स्वयं का सौन्दर्य का साधन तो कोई भी नहीं बन सकता। अर्थात् रस के वाक्यार्थ होने पर वह अलङ्कार्य हो जाता है और अलङ्कार की चारुता उसमें सौन्दर्य का अधीन करती है। अगर इस प्रधानीभूत को भी हम अलङ्कार मानें तो स्वयं से स्वयं का प्रसाधन हो जाएगा जो कि असम्भव है.

 

अन्य रसों की अपेक्षा शृङ्गार ही अधिक मधुर होता है क्योंकि वही आनन्द का कारण होता है। शब्द एवं अर्थ उस मधुर शृङ्गार रस के प्रकाशक होने के कारण काव्य का वह माधुर्यस्वरूप का गुण होता है। (माधुर्य का लक्षण है चित्त का द्रवीभाव होना और जो लोग सुत्रव्यत्व उसकी स्थिति मानते हैं उनका मत ठीक नहीं क्योंकि) श्रव्यत्व तो ओज में भी साधारण है अर्थात् मुश्रव्यत्व ओज में भी पाया जाता है।

 

अर्थ एवं शब्द के गुम्फन के विचित्र प्रपन्च से सुन्दर काव्य का वही आत्मा सार रूप में है। जैसा कि आदिकवि वाल्मीकि का मारी गई प्रेयसी के वियोग से आतुर चक्रवाक के करुण क्रन्दन से उद्बुद्ध शोक ही श्लोक के रूप में परिणत हो गया था। शोक जो है वह करुण रस का स्थायी भाव है। 

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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