Ishavasya-Upanishad-Gita-Press-Hindi-Book-PDF


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ईशावास्य उपनिषद हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Ishavasya Upanishad Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : ईशावास्य उपनिषद | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 73 MB है | इस पुस्तक में कुल 54 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "ईशावास्य उपनिषद" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Ishavasya Upanishad | Author/Editor of this book is : Gita Press, Gorakhpur | This book is published by : Gita Press, Gorakhpur | PDF file of this book is of size 73 MB approximately. This book has a total of 54 pages. Download link of the book "Ishavasya Upanishad" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
गीता प्रेस, गोरखपुरधर्म, उपनिषद73 MB54



पुस्तक से : 

वेदके शीर्षस्थानीय भागका नाम वेदान्त है। यह वेदान्त ही ब्रह्मविद्या है। ब्रह्मविद्या ही सर्वत्र समत्वका दर्शन कराती है, ब्रह्मविद्या से ही अज्ञान की ग्रन्थियाँ कटती हैं, ब्रह्मविद्या से ही कर्म चाञ्चल्य सुसंयत और चित्त अन्तर्मुखी होता है। ब्रह्मविद्याvसे ही मिथ्या अनुभूति का विनाश और परम सत्य की उपलब्धि होती है । ब्रह्म विद्या से ही एकात्मरसप्रत्ययसार अवाढ्यनसगोचर स्वयंप्रकाश विज्ञानस्वरूप चेतनानन्दघन रसैकघन ब्रह्म की प्राप्ति होती है । इस ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन वेद के जिस अत्युच्च शिरोभाग में है, उसीका नाम उपनिषद् है।

 

इन्हीं उपनिषदों के मन्त्रों का समन्वय और इनकी मीमांसा भगवान् वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र में की है और इन्हीं उपनिषद्रूपी गौओं से गोपालनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ने सुधी भोक्ताओं के लिये गीतामृतरूपी दुग्ध का दोहन किया था । इसीलिये उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता प्रस्थानत्रयी कहलाते हैं, और भारतके प्रायः सभी आचार्यों ने इसी प्रस्थानत्रयी के प्रकाश से सत्य का अन्वेषण किया है।

 

यह बात संसार के प्रायः सभी विचारकों को मान्य है कि मनुष्य को आत्यन्तिक शान्ति बाह्य भोगों से प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिये तो उसे किसी अनन्त और निर्वाध सुखस्वरूप सत्ता की ही शरण लेनी पड़ेगी। उस अनन्त सुखसमुद्र की उपलब्धि ही संसार के समस्त दार्शनिकों का ध्रुव लक्ष्य रहा है। उसका भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव करने के कारण ही विभिन्न मतवादों की सृष्टि हुई है। संसार के उस एकमात्र मूलतत्त्व की शोध अनादि काल से होती आयी है।

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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