Mahatma-Vidur-Gita-Press-Hindi-Book-PDF


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महात्मा विदुर हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Mahatma Vidur Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : महात्मा विदुर | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: शांतनु विहारी द्विवेदी, हनुमान प्रसाद पोद्दार | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 16 MB है | इस पुस्तक में कुल 60 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "महात्मा विदुर" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Mahatma Vidur | Author/Editor of this book is : Shantanu Vihari Dwivedi, Hanuman Prasad Poddar | This book is published by : Gita Press, Gorakhpur | PDF file of this book is of size 16 MB approximately. This book has a total of 60 pages. Download link of the book "Mahatma Vidur" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
हनुमान प्रसाद पोद्दारधर्म, भक्ति16 MB60



पुस्तक से : 

महात्मा विदुर का यह चरित 'आदर्श चरितमाला' का चौथा पुष्प है। धर्मावतार विदुरका समस्त जीवन लोक कल्याण की साधना में ही बीता। उनका सदाचार और भगवत्प्रेम सर्वथा स्तुत्य है । ये पाण्डवोंके सच्चे हितैषी एवं सखा थे और बड़े ही स्पष्टवादी और नीति-निपुण थे। महाभारत तथा श्रीमद्भागवत के आधार पर पण्डित श्रीशान्तनुविहारी जी द्विवेदी ने इनके चरित्र का बहुत सरल, सुन्दर एवं ओजस्विनी भाषा में वर्णन किया है। पुस्तकमें विदुरके जीवन की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख तो है ही, सबसे सुन्दर बात यह है कि विद्वान् लेखक ने विदुर की धर्मनीति का बहुत ही उत्तम आकलन किया है, जिसके कारण पुस्तक सबके लिये उपयोगी हो गयी है।

 

धर्मकी गति बड़ी गहन है । कौन-सा कर्म धर्म है और कौन-सा अधर्म, इसका निर्णय सामान्य बुद्धि नहीं कर सकती । धर्म अधर्म का तत्त्व तो स्वयं भगवान् जानते हैं अथवा भगवान्का साक्षात्कार करनेवाले महर्षि लोग जानते हैं । भगवान्का वह रूप, जिसके द्वारा प्राणियोंके हृदयमें स्थित होकर वे जगत्का, प्राणियोंका धारण करते हैं, धर्म नामसे कहा गया है।

 

धर्मावतार विदुर मनुष्य होनेपर भी अपने देवत्व के ज्ञान को भूले नहीं थे । परंतु वे अपनेको कभी देवताके रूप में प्रकट भी नहीं करते थे । सदा मनुष्यधर्मका ही पालन करते थे। बचपन से ही वे बड़े गम्भीर थे । व्यासदेव, भीष्म पितामह आदि गुरुजनों की सेवा में ही प्रायः वे लगे रहते थे । इतने चुप रहते थे, मानो कुछ जानते ही न हो.

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


डाउनलोड लिंक :

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