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संक्षिप्त पद्मपुराण हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sankshipt Padma Puran Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : संक्षिप्त पद्मपुराण | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक हैं : श्री जयदयालजी गोयन्दका | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 1.2 GB है | इस पुस्तक में कुल 1026 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "संक्षिप्त पद्मपुराण" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Sankshipt Padma Puran | Author/Editor of this book is : Shri Jaydayal ji Goyandka | This book is published by : Gita Press, Gorakhpur | PDF file of this book is of size 1.2 GB approximately. This book has a total of 1026 pages. Download link of the book "Sankshipt Padma Puran" has been given further on this page from where you can download it for free.


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श्री जयदयाल जी गोयन्दकापुराण, धर्म, भक्ति1.2 GB1026



पुस्तक से : 

रामराज्य में केवल नदी ही सदम्भा (उत्तम जलवाली) थी, वहाँ की जनता कहीं भी सदम्भा (दम्भ या पाखण्डसे युक्त) नहीं दिखायी देती थी। उस राज्य की स्त्रियों में ही विभ्रम (हाव-भाव या विलास) था; विद्वानों में कहीं विभ्रम (भ्रान्ति या भूल) का नाम भी नहीं था। वहाँ की नदियाँ ही कुटिल मार्ग से जाती थीं, प्रजा नहीं; अर्थात् प्रजा में कुटिलता का सर्वथा अभाव था। 

 

श्रीरामके राज्य में केवल कृष्णपक्ष की रात्रि ही तम (अन्धकार) से युक्त थी, मनुष्यों में तम (अज्ञान या दुःख) नहीं था। वहाँ की स्त्रियों में ही रजका संयोग देखा जाता था, धर्मप्रधान मनुष्यों में नहीं; अर्थात् मनुष्यों में धर्मकी अधिकता होने के कारण सत्त्वगुण का ही उद्रेक होता था [रजोगुणका नहीं] । धन से वहाँ के मनुष्य ही अनन्ध थे (मदान्ध होने से बचे थे); उनका भोजन अनन्ध (अन्नरहित) नहीं था। उस राज्य में केवल रथ ही 'अनय' (लोह-रहित) था; राजकर्मचारियों में 'अनय' (अन्याय) का भाव नहीं था। फरसे, फावड़े, चैवर तथा छत्रों में ही दण्ड (डंडा) देखा जाता था; अन्यत्र कहीं भी क्रोध या बन्धन जनित दण्ड देखने में नहीं आता था। जलों में ही जडता (या जलत्व) की बात सुनी जाती थी; मनुष्यों में नहीं। स्त्रीके मध्यभाग (कटि) में ही दुर्बलता (पतलापन) थी; अन्यत्र नहीं। वहाँ औषधियों में ही कुष्ठ (कूट या कूठ नामक दवा) का योग देखा जाता था, मनुष्योंमें कुष्ठ (कोढ़) का नाम भी नहीं था। रत्नों में ही वेध (छिद्र) होता था, मूर्तियों के हाथों में ही शूल (त्रिशूल) रहता था, प्रजा के शरीर में वेध या शूलका रोग नहीं था। रसानुभूति के समय सात्त्विक भाव के कारण ही शरीर में कम्प होता था, भय के कारण कहीं किसी को कँपकँपी होती हो- ऐसी बात नहीं देखी जाती थी। रामराज्य में केवल हाथी ही मतवाले होते थे, मनुष्यों में कोई मतवाला नहीं था। तरंगे जलाशयों में ही उठती थीं, किसी के मन में नहीं; क्योंकि सबका मन स्थिर था। दान (मद) का त्याग केवल हाथियों में ही दृष्टिगोचर होता था; राजाओं में नहीं। काँटे ही तीखे होते थे, मनुष्यों का स्वभाव नहीं। केवल बाणों का ही गुणों से वियोग होता था, मनुष्यों का नहीं।

 

सीतापति श्रीरामजीके मुखकी ओर निहारते समय लोगोंकी आँखें स्थिर हो जातीं वे एकटक नेत्रों से उन्हें देखते रह जाते थे। सबका हृदय निरन्तर करुणा से भरा रहता था।

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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