Shvetashvatara-Upanishad-Gita-Press-Hindi-Book-PDF


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श्वेताश्वतर उपनिषद हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Shvetashvatara Upanishad Hindi Book



इस पुस्तक का नाम है : श्वेताश्वतर उपनिषद | इस ग्रन्थ के लेखक/संपादक है: गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक के प्रकाशक हैं : गीता प्रेस, गोरखपुर | इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 413 MB है | इस पुस्तक में कुल 276 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "श्वेताश्वतर उपनिषद" पुस्तक का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Shvetashvatara Upanishad | Author/Editor of this book is : Gita Press, Gorakhpur | This book is published by : Gita Press, Gorakhpur | PDF file of this book is of size 413 MB approximately. This book has a total of 276 pages. Download link of the book "Shvetashvatara Upanishad" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
गीता प्रेस, गोरखपुरधर्म, उपनिषद413 MB276



पुस्तक से : 

'श्वेताश्वतरोपनिषद् कृष्णयजुर्वेद के अन्तर्गत है । इसके वक्ता श्वेताश्वतर ऋषि हैं। उन्होंने चतुर्थाश्रमियों को इस विद्या का उपदेश किया था । यह बात इस उपनिषद् के पष्ठ अध्याय के इक्कीसवें मन्त्र से विदित होती है । इस उपनिषद् की विवेचन शैली बड़ी ही सुसम्बद्ध और भावपूर्ण है । इसमें साधन, साध्य, साधक और प्रति पाद्य विषय के महत्त्व का बहुत स्पष्ट और मार्मिक भाषा में निरूपण किया है।

 

इसका आरम्भ जगत्के कारणकी मीमांसासे होता है । कुछ ब्रह्मवादी आपस में मिलकर इस विषयमें विचार करते हैं कि जगत्का कारण क्या है ? हम कहाँ से उत्पन्न हुए ? किसके द्वारा हम जीवन धारण करते हैं ? कौन हमारा आधार है ? और किसकी प्रेरणा से हम दुःख-सुख भोग करते हैं ? संसारके सम्पूर्ण दार्शनिक इन प्रश्नोंको हल करनेमें ही व्यस्त रहे हैं । और उन्होंने अपनी-अपनी अनुभूति के आधार पर जो-जो निर्णय किये हैं वे ही विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं ।

 

इन मन्त्रों के द्वारा द्वैतवादी आचार्यों ने जीव और ईश्वरका भेद सिद्ध करने की चेष्टा की है; परन्तु आचार्य ने पूर्वमन्त्र के दो सखा सुवर्ण विज्ञानात्मा और परमात्मा तथा द्वितीय मन्त्र के पुरुष और ईश अविद्याग्रस्त जीव और प्रत्यगात्मा बतला कर उनका केवल औपाधिक भेद प्रदर्शित करते हुए परमार्थतः एकत्व ही सिद्ध किया है । इस विषय में शारीरकभाष्य में  भी बड़ा युक्तियुक्त विचार किया गया है ।

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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