Sukh-Sagar-Srimad-Bhagwat-Puran-Book-PDF


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सुख सागर श्रीमदभागवद पुराण हिन्दी पुस्तक के बारे में अधिक जानकारी | More details about Sukh Sagar Srimad Bhagwat Puran Hindi Book



इस ग्रन्थ का नाम है : सुख सागर श्रीमदभागवद पुराण | इस ग्रन्थ के मूल रचइता है : महर्षि वेदव्यास | इस ग्रन्थ के संपादक है: श्री माखन लाल खत्री | इस ग्रन्थ के प्रकाशक हैं : श्री दुर्गा पुस्तक भंडार, मुम्बई | इस ग्रन्थ की पीडीऍफ़ फाइल का कुल आकार लगभग 3 GB है | इस पुस्तक में कुल 896 पृष्ठ हैं | आगे इस पेज पर "सुख सागर श्रीमदभागवद पुराण" ग्रन्थ का डाउनलोड लिंक दिया गया है जहाँ से आप इसे मुफ्त में डाउनलोड कर सकते हैं.


Name of the book is : Sukh Sagar Srimad Bhagwat Puran | This Granth is originally written by : Maharshi Vedvyas| Editor of the book is : Shri Makhan Lal Khatri | This book is published by : Shri Durga Pustak Bhandar, Mumbai | PDF file of this book is of size 3 GB approximately. This book has a total of 896 pages. Download link of the book "Sukh Sagar Srimad Bhagwat Puran" has been given further on this page from where you can download it for free.


पुस्तक के संपादकपुस्तक की श्रेणीपुस्तक का साइजकुल पृष्ठ
श्री माखनलाल खत्रीधर्म, भक्ति, पुराण3 GB896



पुस्तक से : 

सनकादिक कहने लगे - हे नारदजी ! आपको हम यह सम्पूर्ण विधि बताते हैं। इस कथा के योग्य सुन्दर स्थान हरिद्वार के निकट आनन्द घाट है। वहाँ पर ऋषि, देवता, सिद्ध सभी निवास करते हैं। अनेक प्रकार के लता बेलों और वृक्षों की सघन्नता के कारण बड़ी सुन्दर छाया रहती है। उस घाट पर गङ्गा की सुन्दर बालू बिछी हुई है, वहाँ पर अनेक प्रकार के सुन्दर पुष्पों की सुगन्ध याती रहती है। वहाँ के रहने वाले प्राणी परस्पर वैरभाव को त्याग कर रहते हैं उसी स्थान पर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य भी स्वयं आ जायेंगे और श्रीमद्भागवत् की कथा सुन कर तरुणावस्था को प्राप्त होंगे।

 

सनकादिऋषि बोले - हे नारद जी! हम आपको एक कथा सुनाते हैं। यह बहुत प्राचीन कथा है। प्राचीन काल में तुङ्गभद्रा नदी के किनारे एक अति रम्य नगर था। उस नगर में एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण रहता था। वह धर्म, कर्म तथा भजन पूजा पाठ इत्यादि सब कर्मों में कुशल था। उसने कुछ धन भी एकत्रित कर लिया था। गृहणी भी सुन्दर थी, किन्तु हठी और कलह प्रिय थी। गृहकार्य में कुशल और पैसा एकत्र करने में चतुर थी।

 

हे वेदव्यास जी! अपने सम्पूर्ण कर्मों को भगवान् के अर्पण कर देना ही दैविक, दैहिक तथा भौतिक तापों को नष्ट कर देना है। हे व्यासजी ! जिस पदार्थ के सेवन से रोग उत्पन्न होता है उसी पदार्थ को यदि विधिवत् सेवन किया जाय तो उत्तम स्वास्थ्य को देता है तथा रोग को दूर करता है। ऐसे ही मनुष्य कर्म तो निरन्तर करता है किन्तु उनमें अपना अहम् भाव (कर्तापन) त्यागकर भगवान् के अर्पण करता रहे तो कर्मपन नष्ट हो जाता है।

 

 (नोट : उपरोक्त टेक्स्ट मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियां संभव हैं, अतः इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये.)


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